सफ़र जरूर है और उज़र की मलाल नहीं

मजा तो यह है कि मंज़िल न रास्ता मालूम – शाद

इंसान की जिदंगी भी ऐसी ही है जहां हमारी तमाम ख्वाहिशें और गुणा – भाग सब फेल हो जाते हैं और चलती है तो सिर्फ ऊपर वाले की मर्जी. पत्थरों पर चाहे जितना सिर पटक लें या ग़म में अपना सीना चाक कर लें. देने वाला उतना ही दे सकता है जितना आपकी किस्मत में हो. फ़िर चाहे तो कह लें कि

उसके बाहर ऊपर वाला दे ही नहीं सकता है और चाहे तो कह लें कि उसके ऊपर आप समेट ही नहीं सकते हैं.

ऐसे में शाद की कही लाइंस बहोत मौजूं हो जाती है शायद जिंदगी को ऐसे ही जिया जा सकता है. बहोत कस कर पकड़ने से सिर्फ रुखापन बच जाता है जिंदगी का रस कहीं खो जाता है.

केवल एक खूबसूरत रास्ते के मानिंद अपनी रौ में बहते हुए इसकी गहराइयों और ऊँचाईयों को छुआ जा सकता है. ग़म में ग़मगीन और खुशी में खुश बिला शिकायत जिए जाना ही इसकी सार्थकता है.